Wednesday, July 10, 2019

गुलाबी सी






गुलाबी सी सुबह,
फिर एक बार घाट की ओर ले गई,
मैं कुछ सोचती सी
उसकी हथेली थामे चलती गई।

मैं चलती गई।

रास्ते में छोटे बरगद की छांव मिली,
मैं वह छांव मेरे चेहरे पे मलती गई।
मैं चलती गई।



कुछ बिखरे पन्ने मिले,
कुछ अभी भी खाली थे, कुछ पे एक कहानी थी,
खाली छोड़, मैंने वो कहानी उठा ली।
मैं चलती गई।

टूटे चौखट का मंदिर, 
जिसमें मेरे राम रहते हैं,
जाग जाओ राघव अब, सूरज उगने को है।
रात ढल गई पर बाती जलती गई।
मैं चलती गई।

अब घाट पे आ पहुंची हूं,
घूंघट से निकल, पानी में उतर गई।


गागर के संग, कुछ मैं भी भर गई।
कमर से लगी गागर
और वो मैं चली फिर।

देखो मेरी पाजेब वहीं भूल आयी,
अब उसे दबे पांव, चौंका दूंगी।
बिना पायल,
पर हसी की खनक ले, 

मैं चलती गई।